Wednesday, May 18, 2016

Mard ka dard (मर्द का दर्द)

वह इंसानों के घर में ही पैदा हुआ था
जन्म के समय उसे कोई बीमारी नहीं थी
हाथ-पैर, नाक, कान, आँख, मुँह सब सही थे
हाँ, दिल और दिमाग भी
उसे बड़े हो कर एक आदमी बन जाना था
लेकिन समाज ने उसे कहीं का ना छोड़ा
और अंत में वह
एक मर्द बनकर रह गया

बचपन में
उसके गाल बहुत मुलायम थे
जो स्कूल से आते हुए
जेठ की दुपहरी में लाल हो जाते थे
माँ ठंडे पानी से उसका मुँह धो कर 
अपने आँचल से पोंछती बड़े प्यार से 
शाम को मोहल्ले के सभी बच्चे
जिनके लड़का-लड़की में श्रेणित होने में
अभी एक-दो साल बाकी थे
सब इकट्ठे हो कर पैंडलूस खेलते,
कभी धूल में लेटते 
कभी किसी को पीटते और कभी खुद पिट जाते
वह बारिश में नंग-धडंग नहाता था
वह नाली के पानी में कागज़ की किश्ती चलाता था
और सुनने में तो यह भी आया है कि
पिताजी जब तक उसके लिए बन्दूक नहीं लाए थे
वह एक-दो बार गुड़ियों से भी खेला था 
वह अपने नन्हे हाथों से घर में झाड़ू लगाता
कभी चूल्हे के पास बैठकर माँ के साथ
अपनी छोटी सी रोटी बनाता  
माँ का लाडला, जो जल्दी ही
किसी भी बात पर रूठ जाता था

फिर एक दिन
अपनी नाक के नीचे हो रहे इस तमाशे की
उसके पिताजी को भनक लग गई
उन्होंने उसे इतना ज़ोर से डाँटा
कि उसके दिल की एक आर्टरी बंद हो गई
रक्त का संचार कुछ तेज़ गति से होने लगा 
एहसास का दिल में जाना रुक गया

फिर उसे रामायण का पाठ पढ़ाया गया
एक पर-स्त्री के स्पर्श मात्र से होने वाले
अनर्थ के बारे में बताया गया
फिर वह लड़कों से तो
अजनबी होने पर भी गले मिल लेता
पर किसी जान-पहचान की लड़की से भी
कभी हाथ ना मिला पाया 
उसे सब लड़कियों से बात करने में
शर्म महसूस होने लगी

उसने माँ को सब बातें बताना छोड़ दिया
अपनी बहन के साथ भी उसका
सब हंसी-मज़ाक सहम गया
लड़ाईयाँ शांत हो गई
वह बहन का रक्षक बन गया

वह छूआ-छूत का खेल सरकारी स्कूल में भी था
जहाँ क्लास में लड़कियों को
अलग लाइन में बिठाया जाता था
और बाहर मैदान में एक पी.टी.आई.
इस तरह नज़र रखता था
जैसे एक गड़रिया
अपनी भेड़ों को भेड़िये से बचाता है
लेकिन तब तक भी उसकी
थोड़ी सी मासूमियत का क़त्ल होना बाकी था

फिर कुछ ऐसा था
जिसका नाम उसने इधर-उधर सुना था
जिसका मतलब उसे ना बता कर
जिसके बारे में हर जानकारी उस से छुपा कर
उसके मन में जरुरत से ज़्यादा
उत्साह उत्पन्न कर दिया गया था
जिसका ज़िक्र सब लड़कों में हंसी के साथ
कानाफूसी और इशारों में होता था
जो कभी एक एडवेंचर तो कभी
उसका एक अपराध बोध बन गया था 
और इस तरह धीरे धीरे
वह मर्द बन रहा था
उसकी गुणवत्ता का पैमाना
ईमानदारी, सच्चाई या खुशमिजाज़ी ना हो कर
अब उसकी मर्दानगी था
और मर्दानगी का पैमाना बहुत गड़बड़ था

वह बात बात पर
माँ-बहन की गालियाँ देने लगा 
हवा के झोंकों के साथ बात करने की बजाए
किसी जंगली सूअर की तरह आँखें निकाल कर 
अपनी और दूसरों की जान दाँव पर लगा कर
बहुत तेज़ स्पीड पर कार चलाने लगा  
शराब पीते हुए उसे हर वक़्त बस
और ज़्यादा पीने की ललक लगी रही
उसने एक घूँट में पैग पिए
उसने बिना पानी के पी, उसने उल्टियाँ की
वह नशे में बदहवास हुआ, फिर गिर कर सो गया 
उसने कम वक़्त में ज़्यादा पीने के बहुत रिकॉर्ड बनाए
बस शराब के खुमार का कभी
इत्मीनान से आनंद नहीं लिया
वह कभी ना जान पाया वह मासूम एहसास
किसी अजनबी से नज़र मिल जाना
और एक मुस्कराहट का इधर से उधर तैर जाना
क्यूंकि लड़कों की तरफ मुस्कुराने में
उसे समलैंगिक समझे जाने का डर लगा रहा
और लड़कियों से नज़र मिलाने की बजाए
वह उन्हें कनखियों से घूरता रहा
वह एक नायक बन सकता था
किसी लड़की को तंग किये जाने पर एतराज़ जताकर
लेकिन वह मर्द एक कायर बना रहा 
वह किसी मजदूरी की भट्टी में जलते हुए बच्चे का
फरिश्ता बन सकता था
लेकिन उस भट्टी की आग से उसका पत्थर दिल नहीं पिघला
वह किसी लड़की के दिल का
अरमान हो सकता था
लेकिन वह आशिक़ और लफंगा होने में
कभी फ़र्क़ नहीं समझ पाया
वह देशभक्ति का जज़्बा लिए हुए
एक राष्ट्रनिर्माता हो सकता था लेकिन
उसे दिखाई दिए केवल
भगत सिंह की मूँछ का ताव और उसकी बन्दूक
वह कभी नहीं देख पाया उसके ज्वलंत विचार
उसकी नि:स्वार्थ भावना और इंसानियत को   
वह बन सकता था एक चित्रकार या डांसर 
लेकिन वह डोले बनाना ही अपना हठधर्म समझता रहा 
वह अपनी बहन की विदाई पर रो नहीं पाया  
वह एक आखिरी बार भी उसे गले ना लगा सका 
बस खड़ा रहा दूर किसी कोने में
जज़्बातों के तूफ़ान को होंठों तले दबोचे हुए

उसने कभी मोहब्बत की तपिश महसूस नहीं की 
पर हाँ, उसकी एक गर्लफ्रेंड बन गई
पहली बार किसी हमसफ़र का हाथ पकड़ने पर
उसके दिल में गुदगुदी नहीं हुई  
उसे उसकी बाँहों में जहान नहीं मिला
शर्म से सुर्ख हुए गालों में
कभी सुबह का आसमान नहीं मिला
क्योंकि वह हर वक़्त
सिर्फ और सिर्फ सैक्स के लिए मचलता रहा
और उसे उसमें भी जन्नत नसीब नहीं हुई
उसके ओछेपन को बस एक बात मिल गई
दोस्तों के आगे डींगें हाँकने के लिए
फिर वह धोखा करता हुआ लड़कियों के दिल तोड़ता रहा
और गिनती करता रहा अपने सैक्स एपिसोड्स की
लेकिन उसका मन यूँ ही शुष्क रहा
उसने मोहब्बत में लुट जाने का मज़ा ना जाना
उसने किसी को खाते हुए, मुस्कुराते हुए,
गाते हुए, उसके पास आते हुए,
सोते हुए, कुछ कुछ बताते हुए देखने 
और देखते रहने का सुकून कभी ना पाया

उसकी शादी की सुहाग रात पर
उसकी पत्नी रातरानी के फूल जैसी
सकुचाई हुई बैठी थी
एक मादकता का फुव्वारा अपने नाखूनों में छिपाए हुए
आसमान में देवता अपने हाथों की अंजुलि में
फूल लिए खड़े थे
नैसर्गिक सौंदर्य से भरी हुई एक रासलीला
उसके बिस्तर के सिराहने खड़ी थी
चादर की गुलझटों में लुका-छिपी करने के लिए
लेकिन मर्दानगी वहाँ भी आ धमकी
रोमांस के पर्दों में आग लगाने के लिए
उसका मन खुद को साबित करने में ही जकड़ा रहा
उसका तन लकड़ी की तरह अकड़ा रहा 
उसने खुद को फिर एक बार मर्द साबित कर लिया 
और बस इतनी ही देर में रात बुझ गई
कमरे की बत्ती जल गई
और एक प्यासी नदी धूल में मिल गई
जो अधिकतर प्यासी ही रही

फिर जब उसे एक बच्चा हुआ
तो दुनिया को भी अपनी मर्दानगी का सबूत दे कर
वह बहुत खुश हुआ
फिर चारों तरफ देखा तो दिखा
कि कुछ कमनसीब लोगों के सिवा
सभी के पास अपने अपने बच्चे थे
फिर कौनसी इस में बड़ी बात थी
जिसे साबित करने के लिए वह ज़िन्दगी भर
एक आदमी बनने से कतराता रहा

तब भी उसकी बेटी उसके निर्जन को हरा कर देती
उसके गालों को चूम कर
उसकी गोदी में झूम कर
उसका बेटा अपनी मीठी मीठी बातों से
अपने स्कूल के हँसी-मज़ाक के किस्से सुनाकर
उसका उपचार कर सकता था
लेकिन वह उनका भविष्य बनाने वाला
डाँट-डपट कर उन्हें बिगड़ने से बचाने वाला
कभी प्यार ना दिखाने वाला
एक अक्खड़ बाप बना रहा
नौकरी में उसका बॉस
और चौराहे पर खड़ा पुलिसिया 
जब तब उसकी मर्दानगी पर चोट करता रहा
जिसका गुस्सा वह बच्चों की पढाई पर
या कभी पत्नी के खाने पर निकालता रहा
फिर पत्नी के साथ धीरे धीरे
उसका सम्बन्ध बस नाम का रह गया

उसकी मर्दानगी के शिथिल होने पर
डींगे हाँकने वाली जवानी खोने पर
उसके पास करने को कुछ भी ना रहा
वह नए ज़माने को गाली देता हुआ
मौत का इंतज़ार करता है

Sunday, May 15, 2016

धुंध

बूझो तो जानें
या सिर्फ मिथ्या मानें
उस चीज़ को
जो है फूल की गंध जैसी
पानी में उठती तरंग जैसी
क्या है वह
जो किसी पुराने दोस्त की तरह
पीछे से दबे पाँव आती है
और ढक लेती है तुम्हारी आँखें
अपनी हथेलियों से
जिसे तुम छू नहीं पाते
और वह तुम्हें छू कर चली जाती है
एकाएक
कभी दफ्तर में अकेले होने पर
किसे ढूँढती हैं तुम्हारी आँखें खिड़की के बाहर
क्यों स्तब्ध हो जाते हो तुम
किसी झील के किनारे खड़े हुए
हवा के एक झोंके से
तुम्हारी आँख में पानी भर आता है
दिल में एक हूक सी उठती है
तुम मुस्कुराने लगते हो
गलती से

क्या होता है तुम्हारे साथ ऐसा
या ऐसा होना बंद हो गया है

कि औरों के साथ तुम्हारा मुँह
बोलने से बंद नहीं होता
और अकेले कहीं भी जाने या कुछ भी करने में
तुम्हें डर लगता है
और अकेले कहीं जाना भी पड़ जाए
बस में, मेट्रो में  
तो अपने दिमाग़ को खूब उलझाए रखते हो तुम
मोबाइल के किसी गेम में या अखबार में
चुगलियों में, रोज़ की उलझनों में
फायदे-नुक्सान में
आगे के किसी प्लान में  

फिर भी कभी कभी चोरी-छिपे
भीड़ के बीच में से
वह आ पहुँचे तुम तक पीछे से
और ढक ले तुम्हारी आँखें
अपनी हथेलियों से
तो खुद को झटकते हो तुम
कहते हो कि कुछ भी तो नहीं
कि तुम्हें याद तो है ही नहीं कि क्या है
तुम साथ ही भूल भी गए हो कहीं
कि कुछ था
जो दिखता नहीं था,
जिसे छू नहीं सकते थे,
एक आवाज़ जो सुनाई नहीं देती थी
पर तुम्हें कहीं बुलाती थी
जाओगे वहाँ
ढूँढ पाओगे उसे
या हर बात को अब कहोगे
मिथ्या और बकवास