Saturday, February 6, 2016

कम्युनिस्ट बचपन (communist bachpan)

बचपन में ही संयोगवश
मैं कम्युनिस्ट बन गया था
अलबत्ता कम्युनिज्म शब्द का अर्थ
उस वक़्त मुझे नहीं पता था

सात साल का था मैं उस वक़्त
जब उस दिन सड़क पर
मेरी कुल्फी को निहारती हुई
एक ललचाही निगाह को देख कर
मैंने आधी कुल्फी खाई
और बाकी उस गरीब लड़के को दे दी थी
उस दिन मैं कम्युनिस्ट बन गया था
अनायास ही मुँह से निकला था
कि कितना अच्छा हो
अगर दुनिया में कोई गरीब न हो
सब लोग आपस में
अपना सब कुछ बाँट लें

हो सकता है कि मुझ पर
पड़ा हो कहानियों का असर
उस वक़्त कहानियाँ भी कम्युनिस्ट थी
एक स्वार्थी दानव ने बच्चों को
अपने बगीचे में खेलने से रोक दिया
तो उसका बगीचा मुरझा गया
जब उसने एक बच्चे को गोदी में लिया
और खेलने दिया सभी को
फिर से अपने बगीचे में
ऐसे ही मुफ्त में
बिना किसी टिकट के
तो वहाँ बहार आ गई
फूल खिल गए, पेड़ लहराए
चिड़िया चहचहाई
वह चिड़िया भी कम्युनिस्ट थी

येसु ने पत्थरों को रोटियाँ बनाकर
बाँट दिया गरीबों में
कर्ण ने दे दिए दान में अपने कुण्डल
कृष्ण ने एक औरत की दयालुता से खुश हो कर
उसके चनों को मोतियों में बदल दिया
कहानी के अंत में नैतिक शिक्षा होती थी
की गरीबों को किया गया दान
सीधा भगवान को जाता है
जो निः स्वार्थ भाव से दूसरों के लिए कुछ करें
वह ऊपर वाले का आशीर्वाद पाता है
देखिये, उस वक़्त तो भगवान भी कम्युनिस्ट था
तो फिर मेरा क्या कसूर

ख़ुशी भी कम्युनिस्ट थी
वह बाँटने से बढ़ती थी
प्रेम लुटाने से मिलता था

शादी किसी एक घर में हो
पर पूरा गाँव शादी के खर्च के लिए
कन्यादान देता था
बारात कम्युनिस्ट चौपाल में ठहरती थी
कप प्लेट चम्मच, खाट, बिस्तर, कुर्सियाँ
पड़ोसियों के घर से मिल जाते थे
बिना किसी किराए के

लुका छिपी खेलते हुए
हम किसी के भी गितवाड़े में
छुप जाते थे
एक ही क्रिकेट बैट से सब
तड़ातड़ शॉट लगाते थे
सभी की एक ही फुटबॉल थी
सबका वही खेल का मैदान था
किसी के भी खेत में
चल रहे ट्यूबवैल में नहा लेते थे हम
बिना किसी की permission के

सभी के कपड़ों का मैल
उसी एक कम्युनिस्ट नहर के पानी से धुलता था
कम्युनिस्ट पेड़ों की लकड़ी का ईंधन
सब चूल्हों में बराबर आग से जलता था
एक कम्युनिस्ट कुआँ सबकी प्यास बुझाता था
हर कोई अपनी भैंस को
उसी कम्युनिस्ट तालाब में नहलाता था
कम्युनिस्ट अखाड़े में हर कोई करता था
कुश्ती और कसरत बिना किसी मासिक चार्ज के
वही एक कुत्ता रात को मोहल्ले के
सब घरों की चौकीदारी करता था

एक ही घर में टीवी था
जहाँ पूरा मोहल्ला रविवार को
रामायण देखता था
उस कम्युनिस्ट टेलीविज़न पर
पूर्णमासी के दिन
किसी के घर पर हलवा खाया
किसी के घर पर खीर

बन्दर को नचाने वाला
साइकिल पर करतब दिखाने वाला
सांग में रागनी गाने वाला
वे सब भी कम्युनिस्ट थे
जितना जो कुछ मेरे पास हुआ
मैंने अपनी मर्ज़ी से दे दिया
पर कभी किसी ने टिकट नहीं मांगी मुझसे
सब कुछ सभी के लिए था

शायद गाँव में सब लोग कम्युनिस्ट ना हों
क्यूंकि गाँव में कहीं एक बाज़ार भी था
जहाँ मैं कभी गया नहीं
और सुनते हैं कि कोई ज़मींदार भी था
जिस से मैं कभी मिला नहीं
मुझे पूरे गाँव में
खेतों में, नहरों में,
घरों और मंदिरों में
गुरूद्वारे के लंगरों में
तीज के झूलों में
दशहरे के पुतलों में
होली के दहन में
दीवाली की फूलझड़ियों में
जनाज़ों में, शादियों में
गाँव की हर बात में हर जगह
कम्युनिज्म का इंद्रधनुष दिखता था

फिल्में भी कम्युनिस्ट थी
अमीरों के घरों से रुपया चुरा कर
जो गरीबों में बाँटता था
उसे हीरो कहा जाता था

तब तो चाँद-सूरज भी कम्युनिस्ट थे
चाँद की शीतल चाँदनी
सूरज की गर्मागर्म रोशनी
सभी को बराबर की मिलती थी


part 2

फिर मैं बड़ा होने लगा
तो परियाँ उड़ कर अपने देश चली गईं
कम्युनिज्म को भी ले गईं
आसपास के लोग आपस में लड़ने लगे
एक कंटीली बाड़ हर तरफ
अपना घेराव फैलाने लगी

तब मुझे अपना पराया समझाया गया
अपना सब कुछ संभाल कर रखना
किसी से कुछ खरीद लो तो ठीक है
वैसे किसी से कुछ भी ना लेना
बचपन में मैं सभी के लिए कृतज्ञ था
उनकी तरह मैं भी उनके लिए कुछ भी कर सकता था
अब मुझे फायदा-नुक्सान, एहसान-फरामोशी
और साथ में thank you कहना सिखलाया गया

अब मुझे प्रॉपर्टी का मतलब समझाया गया
कारोबारों, मालिकों और मजदूरों
नौकरी, तनख्वाह और मैनेजरों
लोकतंत्र, इलेक्शन और वोटरों
संविधान और सरकारों
फ़ौज और हथियारों
पुलिस और कचहरियों
खेतों और लगानों
इन सब के बारे में बताया गया

कम्युनिस्ट कुओं का पानी गंदला हो गया
घरों में सरकारी नलों का पानी आया
उस पानी को पीने से
सरकारी हस्पताल में इलाज कराने से
फिर मैं धीरे धीरे समाजवादी बन गया

part 3

अब मैं युवावस्था से निकल कर
आदमी बनने की उम्र में आ गया हूँ

अब पता चला है कि
कैसे हर एक आदमी कमीना होता है
डंडे के  बिना कोई काम नहीं करता
हर सरकारी मुलजिम आलसी और भ्रष्ट होता है
इसलिए प्राइवेट कंपनी और उद्योगपति
हर काम की कमान सँभालने लगे हैं
ताकि अब कोई आराम ना हो
दिन रात खून-पसीना बहा कर
बहुत सारा काम हो

कोई आदमी ठण्ड में ठिठुरता मरे
कोई किसान आत्महत्या करे
कोई औरत फुटपाथ पर
बच्चे को जन्म देने पर विवश हो
या किसी सरकारी विद्यालय में
बच्चों के सपने और भविष्य नष्ट हो
हमें  बस चाहिए कि
हम इधर उधर का कुछ ना सोचें
सिवाए इसके कि
growth हो और देश आगे बढे

कम्युनिज्म अब केवल जंगल में बचा है
जहाँ अब भी सभी पंछी
हरेक डाल पर गाते हैं
सभी शेर पूरे जंगल में शिकार करते हैं
सभी हिरण वही घास खाते हैं
इसलिए सिवाए एक दो झूठ के कम्युनिस्ट के
जो संसद में बैठते हैं
बाकी सभी कम्युनिस्ट जंगलों में चले गए
लेकिन अब सरकार उन्हें वहाँ भी
छुपने नहीं देगी
जल्द ही सभी का सफाया कर देगी
उन लोगों की औक़ात ही क्या है
जब बाकी सब कुछ बदला जा चुका है
हर तरफ से कम्युनिज्म का साया
उठाया जा चुका है

दिल्ली में कम्युनिज्म की बात की
तो आपको अंडा सैल में क़ैद कर दिया जाएगा
कोई आपकी खबर भी ना दिखाएगा
क्यूंकि कम्युनिज्म का मतलब
लोगों के दिमागी शब्दकोष में बदल कर
अब आतंकवाद कर दिया गया है
कम्युनिस्ट लेखकों को अब
देशद्रोही क़रार कर दिया गया है

अब भगवान भी कम्युनिस्ट नहीं रहा
वह भी मुल्लाओं की टोपियों
और हिन्दुओं के तिलक में बैठ कर
एक दंगे फसाद करने वाला
पत्थर फेंकने वाला
वोट बैंक बनाने वाला
घरों में आग लगाने वाला
बच्चों को ज़िंदा जलाने वाला
औरतों का बलात्कार करने वाला
एक मुस्टंडा बन गया है
अब वह कम्युनिस्ट नहीं रहा

ख़ुशी भी अब कम्युनिस्ट नहीं रही
वह अब बाँटने से नहीं बढ़ती
सामान इकट्ठा करने से मिलती है
वह अब मॉल में बिकती है
अब किसी काम में ख़ुशी नहीं है
वह सब कुछ दिखाने से मिलती है
वह अब दिल में नहीं बसती
वह अब फेसबुक पर दिखती है
बड़े फ्लैट में रहती है
और कार में घूमती है

अब बच्चे भी कम्युनिस्ट नहीं रहे
अब सभी का अपना अपना क्रिकेट बैट है
सभी की अपनी अपनी स्पोर्ट्स कोचिंग
सभी का मासिक चार्ज वाला gym है
अब अच्छे बच्चे
बस्ती के गंदे बच्चों से दूर रहते हैं
डर रहता है कि बस्तियों के बच्चे
उन्हें कहीं गालियाँ देना ना सिखा दें
और उस से भी बड़ा डर यह कि कहीं
हमारे बच्चों को वे अपनी गरीबी ना दिखा दें
कहीं हमारे future champions में वे
इंसानियत ना जगा दें

अब सूरज अमीरों के बंगले की बालकनी से
एक अच्छा view देता है
गरीबों की झोंपड़ियों पर मँडराती हैं
ऊंची इमारतों की काली छाया
वहाँ अब अँधेरा रहने लगा है
वहाँ चमकने के लिए
सूरज के पास वक़्त नहीं होता
वहाँ सूरज केवल कड़कता है
गर्मियों की सिखर दोपहरी में
मज़ा आता है उसे मजदूरों के
बदन को जलाने में

समुद्र भी अमीरों को
अपनी अटखेलियों से रिझाता है
साफ़ सुथरे beach पर अपनी लहरों से
उनके पैरों को सहलाता है
गरीबों को देख कर गुर्राता है
जब कभी आता है उनकी तरफ
तो एक तूफ़ान के साथ
उनका सब कुछ लूट ले जाता है

अब मैं gym में कसरत करने
बैंक्वेट हॉल में शादी करने
रेस्तरां में खाना खाने
बार में बीयर पीने
सिनेमा हॉल में फिल्म देखने
डिस्को में नाचने
खेलने, घूमने, मस्ती करने
हर चीज़ के लिए मॉल में जाता हूँ
अब मोहल्ले में कुछ नहीं होता
वहाँ मॉल का चौकीदार
अपने जैसे किसी गरीब पर भौंकता है
फिर मेरे महंगे कपड़ों को
एक ज़ोर का सलाम ठोंकता है
मुझे बहुत अच्छा लगता है

अब मैं समाजवादी नहीं रहा
और शायद एक कैपिटलिस्ट भी नहीं हूँ
मैं क्या हूँ, मैं नहीं जानता
या शायद मैं कुछ भी नहीं हूँ
और मैं सोचता भी नहीं
क्यूंकि सोचना भी अब
बिना किसी फायदे की
एक बेकार की बीमारी है