अमेरिका की किसी कंपनी के कंप्यूटर में
कुछ गड़बड़ हो गयी
तुम गई उसे ठीक करने के लिए
और फिर वहीँ रह गयी
यहाँ तुम्हारे पीछे से
उस झील को काई ने ढक लिया
जिस झील के किनारे बैठ कर
हम चाँद को निहारा करते थे
घास धूप में जल गयी
और वह बेंच जिस पर
मैंने तुम्हें पहली बार छुआ था
बस्ती के बच्चे
उसकी फट्टियाँ उखाड़ कर ले गए
कुछ दिनों बाद बेंच ही गायब हो गया
कोई उसे कबाड़ी वाले को बेच गया
तुम्हारे अमेरिका जाने के बाद
इस जगह पर अब एक
शोपिंग कॉम्पलेक्स बनने वाला है
जानेमन
उस बेंच के लोहे को
भट्टी में जलाया गया, पिघलाया गया
ठंडा पड़ा, कठोर हुआ
फिर ठोक-पीट कर
उस से ताजमहल बनाया गया
जो आर्ट गैलरी के शोकेस में सजा दिया
ऐसे ही पचास ताजमहल की कतार में
कीमत थी चार हज़ार रूपये
लेकिन वह ज़ंग खा गया
उसकी एक मीनार टूट गई
और गुम्बद में दरार पड़ गई
मैंने देखा नहीं पर मैं जानता हूँ.
वह साँचेकार
मेरे सपनों में आता है बार-बार
और मुझे गालियाँ दिया करता है
मैं न कॉम्पलेक्स की योजना बनाने वालों में हूँ
और न उसकी दीवारें बनाने वालों में
मैं बंजारों में शामिलात हूँ
मेरे पास ज़्यादा रूपये नहीं
पर विदेश जाने पर, सुना है,
बहुत से अलाऊंस और इनसैनटिव मिलते हैं
अपने उस महंगाई भत्ते में से, हो सके तो,
पुराने प्यार की खातिर
कुछ रूपये उस साँचेकार को दे देना
कुछ गड़बड़ हो गयी
तुम गई उसे ठीक करने के लिए
और फिर वहीँ रह गयी
यहाँ तुम्हारे पीछे से
उस झील को काई ने ढक लिया
जिस झील के किनारे बैठ कर
हम चाँद को निहारा करते थे
घास धूप में जल गयी
और वह बेंच जिस पर
मैंने तुम्हें पहली बार छुआ था
बस्ती के बच्चे
उसकी फट्टियाँ उखाड़ कर ले गए
कुछ दिनों बाद बेंच ही गायब हो गया
कोई उसे कबाड़ी वाले को बेच गया
तुम्हारे अमेरिका जाने के बाद
इस जगह पर अब एक
शोपिंग कॉम्पलेक्स बनने वाला है
जानेमन
पूँजीवाद हमारे प्यार को निगल गया
उस बेंच के लोहे को
भट्टी में जलाया गया, पिघलाया गया
ठंडा पड़ा, कठोर हुआ
फिर ठोक-पीट कर
उस से ताजमहल बनाया गया
जो आर्ट गैलरी के शोकेस में सजा दिया
ऐसे ही पचास ताजमहल की कतार में
कीमत थी चार हज़ार रूपये
लेकिन वह ज़ंग खा गया
उसकी एक मीनार टूट गई
और गुम्बद में दरार पड़ गई
मैंने देखा नहीं पर मैं जानता हूँ.
वह साँचेकार
मेरे सपनों में आता है बार-बार
और मुझे गालियाँ दिया करता है
मैं न कॉम्पलेक्स की योजना बनाने वालों में हूँ
और न उसकी दीवारें बनाने वालों में
मैं बंजारों में शामिलात हूँ
मेरे पास ज़्यादा रूपये नहीं
पर विदेश जाने पर, सुना है,
बहुत से अलाऊंस और इनसैनटिव मिलते हैं
अपने उस महंगाई भत्ते में से, हो सके तो,
पुराने प्यार की खातिर
कुछ रूपये उस साँचेकार को दे देना
Yes it is an easy read in Devnagri. A very eclectic voice , certain words spurt your visual before my eyes for instance the word,' phatiyan'.
ReplyDeleteThere are lines with great aesthetic appeal but you donot sustain it. You waver , at times slipping into brazen lines -a straight fall from poetic to prosaic.
Though I liked reading it ..in parts great
Please dissect it without hesitation. Your feedback has been valuable, and I truly want to know more specifically, further detailed as to which part, which lines appeal more, in what way, and which ones didn't read that good, so that I show greater scope to improve...
ReplyDeleteOkay I just go quickly over it. I may be entirely wrong but thats how your poem spoke to me.
ReplyDeleteThe first two stanzas I liked,especially the second one.
The use of words 'shamilat' and 'sanchekar ' is poetic and really fits in.
The lines where you used the word 'janeman, vaste, vah and pechay se' sound bit jarring to the overall flow and absurd.
Though the title is good but what you mean by,' samayvad'. ( What you describe is the outcome of capitalism).
Oops.. :O yes, capitalism of course...
ReplyDeletelike it !
ReplyDelete-maya
thank u :D
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