Thursday, August 22, 2024

भस्मासुर की आत्मकथा

भस्मासुर जब पैदा हुआ  
वह भी मासूम रहा होगा
हरेक बच्चे की तरह

फिर एक दिन आई  
दिमाग में उसके तुर्फाख्याली
कि मैं तो कुछ ख़ास हूँ
भगवान् ने भेजा है मुझे
कुछ अलग करने के लिए  

यहाँ तक भी बात ठीक थी
वह सुलझा सकता था कोई रहस्य
एक वैज्ञानिक बनकर  
चेतना, डार्क एनर्जी या डार्क मैटर
लेकिन विज्ञान उसे रास नहीं आई
या कहिए कि अध्यापिका
उसकी दिलचस्पी नहीं जगा पाई

तो क्या हुआ
बन जाना था उसे एक चित्रकार
अभिनेता,  लेखक या फिर संगीतकार
जो पिरो सके एक युग की चेतना को
अपने तराने में
लेकिन अफ़सोस कि मिल ना सका
उसे सरस्वती का आशीर्वाद

तो क्या हुआ
था विकल्प इसके बाद
कि वह जीत लेता ओलिंपिक मैडल
या समाजसेवी बन जाता
उठा लेता जिम्मा पर्यावरण का
कहीं एक जंगल उगा देता
 
पर उससे कुछ भी करते ना बना
और उसकी मृगतृष्णा
उसे ले गई एक अंधे कुँए में
जहाँ छिन गई उसकी कोमलता
वह हो गया ब्रेनवॉश
पावर की भूख जगी
खो बैठा होश  

और पावर उसे मिल गई
लेकिन अब करे क्या
सृजन करना कभी जाना नहीं
तो वह भस्म करने लगा

उठ नहीं सका उसका बौद्धिक स्तर
तो वह सब नीचे खींचने लगा

जो विज्ञान उसे समझ ना आई
उस पर डाल दी मिट्टी
छद्म-विज्ञान और अंधविश्वास की
कुछ चाटुकार चिरकुटों को
शैक्षिक संस्थानों की कमान दी

सिनेमा और साहित्य पर  
वह प्रोपगैंडा मढ़ने लगा
समाजसेवी संस्थाओं पर
नकेल कसने लगा  

नहीं उठी उसके दिमाग में
कोई तरंग मौलिक विचार की
तो उसके ही जैसे उसके पिट्ठुओं की भीड़
बुद्धिजीवियों पर लानतें भेजने लगी

नहीं उठी उसके मन में
कभी कोई तरंग प्यार की
तो उसके पिट्ठुओं की भीड़
समाज में नफरत का ज़हर घोलने लगी

इस तरह
वह बन गया भस्मासुर   

Poem by Vijeta Dahiya
 

ख्वाबों की सौदेबाज़ी

जब छोटे थे तुम
तुमने सोचा  
कि कुछ बड़ा करना है  
बड़े शहर की तरफ
निकल चले तुम
हाथों में सूटकेस
आँखों में बड़ा ख्वाब लिए

ऐडमिशन हुआ बड़े कॉलेज में
वहाँ से लग गई
बड़ी कंपनी में बड़ी नौकरी
बड़े दफ्तर के बड़े कैबिन में  
बड़े बाबू बन गए तुम
मिली बड़ी सैलरी

लिया बड़ा घर,
और बड़ी कार है,
बड़ा टीवी, बड़ा बिस्तर,
बड़ा सा सोफा, बड़ी बार है,
बड़ी महँगी सिंगल मॉल्ट
रखी है जिसमें
Exercise भी करते हो
बड़े gym में
तुम्हारे बच्चे जाते
बड़े स्कूल में

सब कुछ तो बड़ा है
फिर क्यों करते हो बड़बड़
कहाँ हो गई गड़बड़
जो रूप बदलती है
पर कभी मिटती ही नहीं
वीकेंड पर की बड़ी मस्ती
पर ऊबकर ढूँढ़ते हो कहीं
सुकून का
कोई छोटा सा कोना
जहाँ बिछा सको बिछौना
जिस पर लेटकर
रूह को मिले आराम

पर उसका तो
सौदा कर लिया था ना तुमने
वो जो एक बड़ा ख्वाब था
जिसका समाज से सरोकार था
जिसमें मासूमियत थी
बड़ा जोश था,
जुंबिश थी,
सुपरहीरो बनने की
ललक थी
मज़लूमों का मसीहा
यारों का यार
याद करो क्या था वह
जनता के मुद्दे उठाने वाला पत्रकार  
जान बचाने वाला
भगवान् सरीखा डॉक्टर
या महान संगीतकार
कहीं वह वकील तो नहीं था
न्याय के लिए लड़ जाने वाला
या पुलिस अफसर
मुजरिमों को धूल चटाने वाला

होगा ख्वाब कोई तो ऐसा ही
जिसका तुमने सौदा किया
बेचा ज़मीर, बेची मासूमियत  
और बदले में लिया
बड़ा घर, बड़ी कार
चुना तुमने कि
हर शनिवार और रविवार  
तुम खाओगे-पियोगे,
शॉपिंग करोगे   
और बाकी पाँच दिन
पल-पल मरोगे  
तनाव में रहोगे
और इस दुर्गति को
जीवन की सच्चाई कहोगे

कब किया यह सौदा तुमने
यह नौकरी लेते समय
जब एडमिशन लिया कॉलेज में
या उससे भी पहले
जब कोचिंग सेंटर जाने लगे
ग्यारहवीं क्लास में

आज मत शर्माओ
सच सच बताओ
यह सौदा कब किया तुमने

क्योंकि यह तो संभव नहीं
कि हो बचपन से यही  
ख्वाब तुम्हारा
कि सत्ता की चरण-वंदना करूँगा
पत्रकार बनकर
बनूँगा अमीर डॉक्टर  
हस्पताल से कमीशन पाकर
हर महीने करते हुए
कुछ ग़ैर-जरूरी heart सर्जरी  

यह नहीं हो सकता
तुमने बचपन में ही चाहा हो
पूरे जंगल को उजाड़ देना
फैक्ट्री लगाने के लिए  
ज़ोरदार बहस करना कोर्ट में
किसी क़ातिल को बचाने के लिए

नहीं सोचता कोई बच्चा
कि निठल्ला शिक्षक बनकर
देश का भविष्य तबाह करूँगा  
नेता या अफसर बनकर
जनता का खून चूसूँगा
गायक बनकर बनाऊँगा भद्दे गाने
बड़ा एक्टर बनकर
गुटखे का विज्ञापन करूँगा

नहीं कहता कोई बच्चा
कि नहीं है मेरी
कोई सामाजिक जिम्मेवारी
बच्चा तो सपने लेता है
कि सुपरमैन बनकर
बचा ली मैंने दुनिया सारी

कोई बच्चा देखा नहीं मैंने
लील लिया हो जिसकी आत्मा को
पैसे की हवस ने

याद करो
क्या रही मजबूरी
क्यों किया था सौदा तुमने  
कब किया
या बचपन में ही
किसी और ने छीन लिया
ख्वाब तुम्हारा

क्या वह कोई इंसान था
बड़ी उम्र का  
जिसने तुम्हारे लिए
खुद से यह सौदा कर दिया

अपनी पसंद के काम में
मस्त हो जाने को
पूरी तरह खो जाने को
जिसने बदल दिया
उपभोग की मस्ती से

अल्हड़ ख़्वाबों को छीनकर
implant किए तुम्हारे दिमाग में
ऐसे बड़े सपने
जिनमें कोई बड़प्पन नहीं था

किसने किया सौदा
तुमने या किसी और ने
कब किया, क्यों किया
यह याद नहीं
तो कोई बात नहीं

वक़्त अभी भी है
फिर से ख्वाब सजाओ
कब तक घुटते रहोगे
सीमेंट के महलों में  
बाहर आओ

ऐसा कोई मुक़ाम नहीं
जहाँ से लौटा ना जा सके
बंद करो ढूँढना
कोई सुकून का कोना
सुकून से भरी हुई
एक पूरी दुनिया  
तुम्हारे इंतज़ार में है
ढूँढो ज़रा
मिलेगा कोई तो रास्ता
वहाँ पहुँचने का

- विजेता दहिया

Wednesday, June 12, 2024

Faraway lights

 

The outer side of the village
The child went for strolling
In the lush green fields
On many a winter evening

He would watch the sun set
Sitting calmly by the stream
The foggy night swept in
Some lights started to gleam

Shining somewhere faraway
Where is that, he wondered
The land of twinkling lights
Who lives in that world

This was his horizon where
The faraway lights shimmered
No mystery did they pose
Tranquil mystique they offered

He was there years later
On some errand, in his car
His land of twinkling lights
Was some town not so far

But no lights twinkled here
They shone loud and bright
When the summer evening
Melted into a glassy night

He climbed a building roof
On the town’s outer side
His eyes towards his village
He glanced far and wide

Faraway he saw some lights
In the dark did they twinkle
Hoping to rekindle the magic
As a dry wind blew gentle

Faraway lights still a sight
Yet now he felt wistful
What was it that he missed
Why he felt not blissful

Awash with nearby street light
No mystique, no tranquility
Due to the dark of the fields
The lights had their serenity